सोमवार, 11 जुलाई 2022

बारिश

बारिशों में भीगें और तुम नहीं तो क्या मज़ा

उल्फतों में मिलके न भीगे तो बताओ क्या मज़ा


बूँदों ने समझा ज़ुल्फ़ घटा-सी तेरी छाई है

इश्क़ में ऐसा भरम न चलता रहे तो क्या मज़ा


ख़्वाब में ही भीगना सच में हो जाना तरबतर

ख़्याल बादल-सा न उमड़ा तो बताओ क्या मज़ा


छिपके बिजली-सा चमक के गिर जाना दस्तूर है

बिजलियों में अक्स तेरा न उभरे तो क्या मज़ा


पानी की रवानी के किसी किस्से में तुझको खोजना

दरिया-सा बहकर बहके नहीं तो बहने का क्या मज़ा


शबनम ढलकती ही रही गालों पे तेरे रातभर

सफर में राहें हमनवां की बदलें नहीं तो क्या मज़ा



-सुनील सोनी

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

वादे

 वादे हैं ख़ूब औ उनको निभाने का अदब है

उलझे हुए धागों को सुलझाने का सबब है


मैं जगा दूं तो दिखा देना उम्मीदों का सबेरा

तरन्नुम में हर इक नग़मा गाने का सबब है


वो जाता है और जताने में कसर नहीं बाक़ी

हर लम्हा फ़िर तसव्वुर में जीने का सबब है


कोई आए तो मुनासिब है रौनक़ भी लौटे

हमारे ख्वाबों में हर सू उजाले का सबब है


जो जाता है, अच्छे से विदा कर दो उसको

जो आया है, उसके गले लगने का सबब है

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

मर्ज़ी

 

हम तो चले जाएंगे याद करते करते

चले आना न आना उनके हाथ है

सुबह खिलखिलाना शाम को रूठ जाना
मना पाऊँगा क्या सब उनके हाथ है

बीत जाएंगी घड़ियां ज़माने भी गुज़रेंगे
ज़िंदगी कैसे गुज़रे सब उनके हाथ है

अंधेरे का असर है भोर की बज़्म तक
दीप जलाएं न जलाएं उनके हाथ है

कभी सुनता था अब भी सुनता आया हूँ
साथ होगा न होगा सब उनके हाथ है

©सुनील सोनी

शनिवार, 16 जनवरी 2021

आवाज़


तेरी आवाज़ मेरी आवाज़ से कितनी मिलती है

तेरी सूरत मेरे नग़मे से भी कितनी मिलती है


ख़्वाब में भी असलियत से कितनी मिलती है

मेरी ज़िंदगी तेरी उम्मीद से कितनी मिलती है


कोई सूरत न छोड़ी जो तेरी गली से मिलती है

तेरे बहाने हर शाम जैसे मुझसे मिलती है


ज़माना भूल जाएगा कब तू किससे मिलती है

मेरे बारे में ही सोचा कर कि तबीयत बहलती है


सुनील ओ अगरचे भरम बाक़ी तो मिलती है

ये मानो ख़ाक में ही उल्फ़त हर बार मिलती है

सोमवार, 4 जनवरी 2021

स्वप्न

 स्वप्न आँखों को जगाता

पुष्प नव नित ज्यों खिलाता

आसमां से धरती मिलाता

रंग सूरज में भरे 

चंद्रमा जैसे सजे

हर तरफ हरियाली नई

नदी ज्यों समंदर से मिली

जल भी वही, थल भी वही

खेत में मिट्टी वही

अंकुर पौधा पेड़ वही

आज से कल तक वही


यह सृजन है

स्वप्न है

सृष्टि नई

दृष्टि नई



सपना उगेगा

खेत में

हल लगेगा

जोत में

बीज सृजन के

बोये हैं

मतवाले

खोये हैं

नव दृष्टि का पर्व है

नव सृष्टि का सर्ग है


तूने जो सपना बोया था

चल उसे सींचते हैं

हँसी का जो आँसू खोया था

चल उसे खींचते हैं

नया नहीं बस सोया था

चल उसे उठाते हैं

सृजन राग तेरे मन बैठा

चल उसे हम गाते हैं


©सुनील_सोनी

दीवाना (ग़ज़ल 15)

 साये के साथ

रंग हैं नहीं

जो छोड़ता कभी कहीं

कब कहाँ जाएंगे नहीं

वहीं कहीं नहीं सही

यहीं अभी सही यही

हमसफ़र सफ़र में नहीं

साया कभी साया नहीं

रंग सुर्ख़ सुर्खी में नहीं

लहू छलक आया नहीं


©सुनील_सोनी

©SuneilSoni

दिवाली की शुभकामनाएं

कविता : सुनील  स्वर : अर्चना वीडियो संपादन : गार्गी