कविता : सुनील
स्वर : अर्चना
वीडियो संपादन : गार्गी
समाज का सबसे बड़ा सरोकार यानी प्रेम छीजता जा रहा है. लिहाजा, मेरी कविताओं में आपको प्रेम ही केंद्रबिंदु नज़र आएगा. मेरे और दो प्रिय विषय हैं : पहला सिनेमा और समाज; और दूसरा राजनीति के मार्फत समाज और समाज के मार्फत जन.
बारिशों में भीगें और तुम नहीं तो क्या मज़ा
उल्फतों में मिलके न भीगे तो बताओ क्या मज़ा
बूँदों ने समझा ज़ुल्फ़ घटा-सी तेरी छाई है
इश्क़ में ऐसा भरम न चलता रहे तो क्या मज़ा
ख़्वाब में ही भीगना सच में हो जाना तरबतर
ख़्याल बादल-सा न उमड़ा तो बताओ क्या मज़ा
छिपके बिजली-सा चमक के गिर जाना दस्तूर है
बिजलियों में अक्स तेरा न उभरे तो क्या मज़ा
पानी की रवानी के किसी किस्से में तुझको खोजना
दरिया-सा बहकर बहके नहीं तो बहने का क्या मज़ा
शबनम ढलकती ही रही गालों पे तेरे रातभर
सफर में राहें हमनवां की बदलें नहीं तो क्या मज़ा
-सुनील सोनी
वादे हैं ख़ूब औ उनको निभाने का अदब है
उलझे हुए धागों को सुलझाने का सबब है
मैं जगा दूं तो दिखा देना उम्मीदों का सबेरा
तरन्नुम में हर इक नग़मा गाने का सबब है
वो जाता है और जताने में कसर नहीं बाक़ी
हर लम्हा फ़िर तसव्वुर में जीने का सबब है
कोई आए तो मुनासिब है रौनक़ भी लौटे
हमारे ख्वाबों में हर सू उजाले का सबब है
जो जाता है, अच्छे से विदा कर दो उसको
जो आया है, उसके गले लगने का सबब है
हम तो चले जाएंगे याद करते करते
चले आना न आना उनके हाथ है
सुबह खिलखिलाना शाम को रूठ जाना
मना पाऊँगा क्या सब उनके हाथ है
बीत जाएंगी घड़ियां ज़माने भी गुज़रेंगे
ज़िंदगी कैसे गुज़रे सब उनके हाथ है
अंधेरे का असर है भोर की बज़्म तक
दीप जलाएं न जलाएं उनके हाथ है
कभी सुनता था अब भी सुनता आया हूँ
साथ होगा न होगा सब उनके हाथ है
©सुनील सोनी
तेरी आवाज़ मेरी आवाज़ से कितनी मिलती है
तेरी सूरत मेरे नग़मे से भी कितनी मिलती है
ख़्वाब में भी असलियत से कितनी मिलती है
मेरी ज़िंदगी तेरी उम्मीद से कितनी मिलती है
कोई सूरत न छोड़ी जो तेरी गली से मिलती है
तेरे बहाने हर शाम जैसे मुझसे मिलती है
ज़माना भूल जाएगा कब तू किससे मिलती है
मेरे बारे में ही सोचा कर कि तबीयत बहलती है
सुनील ओ अगरचे भरम बाक़ी तो मिलती है
ये मानो ख़ाक में ही उल्फ़त हर बार मिलती है
स्वप्न आँखों को जगाता
पुष्प नव नित ज्यों खिलाता
आसमां से धरती मिलाता
रंग सूरज में भरे
चंद्रमा जैसे सजे
हर तरफ हरियाली नई
नदी ज्यों समंदर से मिली
जल भी वही, थल भी वही
खेत में मिट्टी वही
अंकुर पौधा पेड़ वही
आज से कल तक वही
यह सृजन है
स्वप्न है
सृष्टि नई
दृष्टि नई
सपना उगेगा
खेत में
हल लगेगा
जोत में
बीज सृजन के
बोये हैं
मतवाले
खोये हैं
नव दृष्टि का पर्व है
नव सृष्टि का सर्ग है
तूने जो सपना बोया था
चल उसे सींचते हैं
हँसी का जो आँसू खोया था
चल उसे खींचते हैं
नया नहीं बस सोया था
चल उसे उठाते हैं
सृजन राग तेरे मन बैठा
चल उसे हम गाते हैं
©सुनील_सोनी
साये के साथ
रंग हैं नहीं
जो छोड़ता कभी कहीं
कब कहाँ जाएंगे नहीं
वहीं कहीं नहीं सही
यहीं अभी सही यही
हमसफ़र सफ़र में नहीं
साया कभी साया नहीं
रंग सुर्ख़ सुर्खी में नहीं
लहू छलक आया नहीं
©सुनील_सोनी
©SuneilSoni
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